भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस सभा में चुप रहो / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

Kavita Kosh से
Rameshwarkambojhimanshu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:08, 25 फ़रवरी 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस सभा में

चुप रहो

हुआ बहरों का

आगमन ।


ये खड़े हैं

आईने के सामने

यह जानते हैं –

अपने ही

दाग़दार

चेहरे नहीं पहचानते हैं ।

तर्क का

उत्तर बचा

केवल कुतर्कों

का वमन ।


बीहड़ से चल

हर घर तक

आ चुके हैं

भेड़िए ।

हैं भूख से

व्याकुल बहुत

इनको तनिक न

छेड़िए ।

लपलपाती

जीभ खूनी

ज़हर भरे इनके वचन ।


हलाल इनके

हाथ से

जनता हुई है

आजकल ।

काटते रहेंगे हमेशा

लूट-डाके की फ़सल ।

याद रखना

उतार लेंगे

लाश का भी

ये कफ़न ।