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दोस्त ग़मख़्वारी में मेरी सअई फ़रमायेंगे क्या / ग़ालिब

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दोस्त ग़मख्वारी में मेरी सअ़ई<ref>सहायता</ref> फ़रमायेंगे क्या
ज़ख़्म के भरने तलक नाख़ुन न बढ़ आयेंगे क्या

बे-नियाज़ी<ref>उपेक्षा</ref> हद से गुज़री,बन्दा परवर कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल; और आप फ़रमायेंगे, 'क्या?'

हज़रत-ए-नासेह गर आएं, दीदा-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझायेंगे क्या

आज वां तेग़ो-कफ़न बांधे हुए जाता हूँ मैं
उज़्र<ref>प्रशन उठाना, ना-नुकर करना</ref> मेरा क़त्ल करने में वो अब लायेंगे क्या

गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा! यूं सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अन्दाज़ छुट जायेंगे क्या

ख़ाना-ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़<ref>जु्ल्फ़ों के कैदी</ref> हैं ज़ंजीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा ज़िन्दां<ref>कैदखाना</ref> से घबरायेंगे क्या

है अब इस माअ़मूरा<ref>नगर</ref> में क़हते-ग़मे-उल्फ़त<ref>प्रेम के दुखों का अकाल</ref> 'असद'
हमने ये माना कि दिल्ली में रहें, खायेंगे क्या

शब्दार्थ
<references/>