कविता बनाम दूसरे काम / कुमार सुरेश
तीसरे और चौथे पहर का संधिकाल
सफारी के नीचे स्लीपर
काँधे पर झोला
दद्दा अजीब लगते हैं
सुपरिचित-नाम कवि !
परिचय होते ही
चट से उतारा झोला
कोई पत्रिका निकाल दिखाने लगे
उनकी कविता छपी है
दूसरी फिर तीसरी पत्रिका निकाली
कुछ पोस्टकार्ड भी
जो मिले पाठकों या संपादकों से
कविता कर्म की चर्चा का बना उपक्रम
बताने लगे, किस पत्रिका में कौन हैं संपादक
किस-किस से उनका परिचय
कौन जानता उन्हें नाम से
कौन अच्छा है
कौन इतना घमंडी
कि उनके पत्रों का देता नहीं जवाब
सीनियर कवि के नाते देने लगे सलाह
उस पत्रिका को भेजो वहां फलां है
अलां को फ़ोन करो, बात बन जाती है
पूरे वार्तालाप में नहीं बताते गुर
अच्छी कविता कैसे लिखी जाए
कहा मैंने
जिंदगी वैसे ही नीचता से लथपथ है
न जाने क्या-क्या समझौते और पतन
कविता चुनी ही इसलिए है हमने
कि इसमें झलक है स्वतंत्रता कि
जहाँ समझौता और बंधन नहीं
कविता कर्म करते समय
स्वतंत्र-चेता मनुष्य होता है कवि
कविता को भी यदि
जुगाड़ और अवसर के कीचड से लपेटना है
तो बिना कविता के ही जिंदगी खूब नरक है
कुछ चीजें पवित्र हैं जैसे
हवा में नाचता खिला फूल
छोटे बच्चे की आँखें
दोस्तों की बेतकल्लुफ हंसी
और कविता
इन चीजों को सहेजना है ऐसे
जैसे बच्चे सहेजकर रखते हैं
विद्या की पत्ती किताब के बीच
हम सहेजते हैं डबडबायी आँख
रुमाल की कोर के बीच
सारी पशुता के बरक्स
कविता इंसान होने का सुकून है
इसको बेचने से अच्छा है
कुछ और किया जाए
जैसे चुनाव लड़ना या मंदिर कमेटी का चंदा वसूलना
मोहल्ला गणेश उत्सव समिति का बन जाना अध्यक्ष
या फिर आप ही सोचें वह कुछ
कविता को छोड़कर.