भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ढाबा : आठ कविताएँ-8 / नीलेश रघुवंशी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:38, 5 मार्च 2010 का अवतरण
ढाबे पर
झाड़ू लगाते बर्तन माँजते-माँजते हुआ प्रेम।
वह आकर खड़ा हो जाता
सामने वाली पान की गुमटी पर
रोटी बनाते-बनाते मैं देखती उसकी ओर
तवे पर जलती रोटी करती इशारा
'आना शाम को'
दोपहर को भगाती आती थी शाम
निकलने को ही होती ढाबे से
आ जाता कोई ग्राहक
हम हँसते रहते देर तक फिर मिलने का वायदा करते हुए।
उसी हँसी को ढूँढ़ती हूँ आज भी
जब भी कभी दिखता है कोई ढाबा
हँसी में डूबी शाम आ जाती है याद।