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भरम / चंद्र रेखा ढडवाल
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पैसों की ढेरी पर सधते-लुढ़कते
ईमान ने नहीं दी सीख
नेह-दुलार और प्यार के नातों की
नश्वरता के बहाने
मनमानी ख़रीद -फ़रोख़्त ने भी
नहीं समझाया
आँख में अँगुली डाल कर उघाड़ दिया सच
पुत्री को दान में देकर फूले न समाते पिता ने
जिसे आत्मसात किया बाज़ार ने
पूरी निष्ठा से
यूँ ही दे दी जाती वस्तु का दाम दिया
चेहरे की लुनाई को
कन्धों को / पीठ को
उसकी लाज और ढीठाई को
ख़रीदा फिर बेचा
खरीदने-बेचने के बीच
रचा एक तिलिस्म ऐसा
के वस्तु को भरम हुआ
कर्ता होने का.