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नौ सपने / भाग 1 / अमृता प्रीतम

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तृप्ता चौंक के जागी,

लिहाफ़ को सँवारा

लाल लज्जा-सा आँचल

कन्धे पर ओढ़ा



अपने मर्द की तरफ़ देखा

फिर सफ़ेद बिछौने की

सिलवट की तरह झिझकी



और कहने लगी :

आज माघ की रात

मैंने नदी में पैर डाला



बड़ी ठण्डी रात में –

एक नदी गुनगनी थी



बात अनहोनी,

पानी को अंग लगाया

नदी दूध की हो गयी



कोई नदी करामाती

मैं दूध में नहाई



इस तलवण्डी में यह कैसी नदी

कैसा सपना?



और नदी में चाँद तिरता था

मैंने हथेली में चाँद रखा, घूँट भरी



और नदी का पानी –

मेरे खून में घुलता रहा

और वह प्रकाश

मेरी कोख में हिलता रहा।



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