आज भीनी रात की बेला
और जेठ के महीने –
यह कैसी आवाज़ थी?
ज्यों जल में से थल में से
एक नाद-सा उठे
यह मोह और माया का गीत था
या ईश्वर की काया का गीत था?
कोई दैवी सुगन्ध थी?
या मेरी नाभि की महक थी?
मैं सहम-सहम जाती रही,
डरती रही
और इसी आवाज़ की सीध में
वनों में चलती रही...
यह कैसी आवाज़,
कैसा सपना?
कितना-सा पराया?
कितना-सा अपना?
मैं एक हिरनी –
बावरी-सी होती रही,
और अपनी कोख से
अपने कान लगाती रही।
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