आशा / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
रचनाकार: जयशंकर प्रसाद
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ऊषा सुनहले तीर बरसती
जयलक्ष्मी-सी उदित हुई,
उधर पराजित काल रात्रि भी
जल में अतंर्निहित हुई।
वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का
आज लगा हँसने फिर से,
वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में
शरद-विकास नये सिर से।
नव कोमल आलोक बिखरता
हिम-संसृति पर भर अनुराग,
सित सरोज पर क्रीड़ा करता
जैसे मधुमय पिंग पराग।
धीरे-धीरे हिम-आच्छादन
हटने लगा धरातल से,
जगीं वनस्पतियाँ अलसाई
मुख धोती शीतल जल से।
नेत्र निमीलन करती मानो
प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने,
जलधि लहरियों की अँगड़ाई
बार-बार जाती सोने।
सिंधुसेज पर धरा वधू अब
तनिक संकुचित बैठी-सी,
प्रलय निशा की हलचल स्मृति में
मान किये सी ऐठीं-सी।
देखा मनु ने वह अतिरंजित
विजन का नव एकांत,
जैसे कोलाहल सोया हो
हिम-शीतल-जड़ता-सा श्रांत।
इंद्रनीलमणि महा चषक था
सोम-रहित उलटा लटका,
आज पवन मृदु साँस ले रहा
जैसे बीत गया खटका।
वह विराट था हेम घोलता
नया रंग भरने को आज,
'कौन'? हुआ यह प्रश्न अचानक
और कुतूहल का था राज़!
"विश्वदेव, सविता या पूषा,
सोम, मरूत, चंचल पवमान,
वरूण आदि सब घूम रहे हैं
किसके शासन में अम्लान?
किसका था भू-भंग प्रलय-सा
जिसमें ये सब विकल रहे,
अरे प्रकृति के शक्ति-चिह्न
ये फिर भी कितने निबल रहे!
विकल हुआ सा काँप रहा था,
सकल भूत चेतन समुदाय,
उनकी कैसी बुरी दशा थी
वे थे विवश और निरुपाय।
देव न थे हम और न ये हैं,
सब परिवर्तन के पुतले,
हाँ कि गर्व-रथ में तुरंग-सा,
जितना जो चाहे जुत ले।"
"महानील इस परम व्योम में,
अतंरिक्ष में ज्योतिर्मान,
ग्रह, नक्षत्र और विद्युत्कण
किसका करते से-संधान!
छिप जाते हैं और निकलते
आकर्षण में खिंचे हुए?
तृण, वीरुध लहलहे हो रहे
किसके रस से सिंचे हुए?
सिर नीचा कर किसकी सत्ता
सब करते स्वीकार यहाँ,
सदा मौन हो प्रवचन करते
जिसका, वह अस्तित्व कहाँ?
हे अनंत रमणीय कौन तुम?
यह मैं कैसे कह सकता,
कैसे हो? क्या हो? इसका तो-
भार विचार न सह सकता।
हे विराट! हे विश्वदेव !
तुम कुछ हो,ऐसा होता भान-
मंद्-गंभीर-धीर-स्वर-संयुत
यही कर रहा सागर गान।"
"यह क्या मधुर स्वप्न-सी झिलमिल
सदय हृदय में अधिक अधीर,
व्याकुलता सी व्यक्त हो रही
आशा बनकर प्राण समीर।
यह कितनी स्पृहणीय बन गई
मधुर जागरण सी-छबिमान,
स्मिति की लहरों-सी उठती है
नाच रही ज्यों मधुमय तान।
जीवन-जीवन की पुकार है
खेल रहा है शीतल-दाह-
किसके चरणों में नत होता
नव-प्रभात का शुभ उत्साह।
मैं हूँ, यह वरदान सदृश क्यों
लगा गूँजने कानों में!
मैं भी कहने लगा, 'मैं रहूँ'
शाश्वत नभ के गानों में।
यह संकेत कर रही सत्ता
किसकी सरल विकास-मयी,
जीवन की लालसा आज
क्यों इतनी प्रखर विलास-मयी?
तो फिर क्या मैं जिऊँ
और भी-जीकर क्या करना होगा?
देव बता दो, अमर-वेदना
लेकर कब मरना होगा?"
एक यवनिका हटी,
पवन से प्रेरित मायापट जैसी।
और आवरण-मुक्त प्रकृति थी
हरी-भरी फिर भी वैसी।
स्वर्ण शालियों की कलमें थीं
दूर-दूर तक फैल रहीं,
शरद-इंदिरा की मंदिर की
मानो कोई गैल रही।
विश्व-कल्पना-सा ऊँचा वह
सुख-शीतल-संतोष-निदान,
और डूबती-सी अचला का
अवलंबन, मणि-रत्न-निधान।
अचल हिमालय का शोभनतम
लता-कलित शुचि सानु-शरीर,
निद्रा में सुख-स्वप्न देखता
जैसे पुलकित हुआ अधीर।
उमड़ रही जिसके चरणों में
नीरवता की विमल विभूति,
शीतल झरनों की धारायें
बिखरातीं जीवन-अनुभूति!
उस असीम नीले अंचल में
देख किसी की मृदु मुसक्यान,
मानों हँसी हिमालय की है
फूट चली करती कल गान।
शिला-संधियों में टकरा कर
पवन भर रहा था गुंजार,
उस दुर्भेद्य अचल दृढ़ता का
करता चारण-सदृश प्रचार।
संध्या-घनमाला की सुंदर
ओढे़ रंग-बिरंगी छींट,
गगन-चुंबिनी शैल-श्रेणियाँ
पहने हुए तुषार-किरीट।
विश्व-मौन, गौरव, महत्त्व की
प्रतिनिधियों से भरी विभा,
इस अनंत प्रांगण में मानो
जोड़ रही है मौन सभा।
वह अनंत नीलिमा व्योम की
जड़ता-सी जो शांत रही,
दूर-दूर ऊँचे से ऊँचे
निज अभाव में भ्रांत रही।
उसे दिखाती जगती का सुख,
हँसी और उल्लास अजान,
मानो तुंग-तुरंग विश्व की।
हिमगिरि की वह सुढर उठान
थी अंनत की गोद सदृश जो
विस्तृत गुहा वहाँ रमणीय,
उसमें मनु ने स्थान बनाया
सुंदर, स्वच्छ और वरणीय।
पहला संचित अग्नि जल रहा
पास मलिन-द्युति रवि-कर से,
शक्ति और जागरण-चिन्ह-सा
लगा धधकने अब फिर से।
जलने लगा निंरतर उनका
अग्निहोत्र सागर के तीर,
मनु ने तप में जीवन अपना
किया समर्पण होकर धीर।
सज़ग हुई फिर से सुर-संकृति
देव-यजन की वर माया,
उन पर लगी डालने अपनी
कर्ममयी शीतल छाया।