श्रद्धा / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
रचनाकार: जयशंकर प्रसाद
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तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत?
वेदना का यह कैसा वेग?
आह तुम कितने अधिक हताश-
बताओ यह केसा उद्वेग
हृदय में क्या है नहीं अधीर-
लालसा की निश्शेष?
कर रहा वंचित कहीं न त्याग तुम्हें,
मन में घर सुंदर वेश
दुख के डर से तुम अज्ञात
जटिलताओं का कर अनुमान,
काम से झिझक रहे हो आज़
भविष्यत् से बनकर अनजान,
कर रही लीलामय आनंद-
महाचिति सजग हुई-सी व्यक्त,
विश्व का उन्मीलन अभिराम-
इसी में सब होते अनुरक्त।
काम-मंगल से मंडित श्रेय,
सर्ग इच्छा का है परिणाम,
तिरस्कृत कर उसको तुम भूल
बनाते हो असफल भवधाम"
"दुःख की पिछली रजनी बीच
विकसता सुक का नवल प्रभात,
एक परदा यह झीना नील
छिपाये हे जिसमें सुख का गात।
जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल-
ईश का वह रहस्य वरदान,
कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा
स्पंदित विश्व महान,
यही दुख-सुख विकास का सत्य
यही भूमा का मधुमय दान।
नित्य समरसता का अधिकार
उमडता कारण-जलधि समान,
व्यथा से नीली लहरों बीच
बिखरते सुख-मणिगण-द्युतिमान।"
लगे कहने मनु सहित विषाद-
"मधुर मारूत्-से ये उच्छ्वास
अधिक उत्साह तरंग अबाध
उठाते मानस में सविलास।
किंतु जीवन कितना निरूपाय
लिया है देख, नहीं संदेह,
निराशा है जिसका कारण,
सफलता का वह कल्पित गेह।"
कहा आगंतुक ने सस्नेह- "अरे,
तुम इतने हुए अधीर
हार बैठे जीवन का दाँव,
जीतते मर कर जिसको वीर।
तप नहीं केवल जीवन-सत्य
करूण यह क्षणिक दीन अवसाद,
तरल आकांक्षा से है भरा-
सो रहा आशा का आल्हाद।
प्रकृति के यौवन का श्रृंगार
करेंगे कभी न बासी फूल,
मिलेंगे चे अति शीघ्र
आह उत्सुक है उनकी धूल।
पुरातनता का यह निर्मोक
सहन करती न प्रकृति पल एक,
नित्य नूतनता का आंनद
किये है परिवर्तन में टेक।
युगोम की चट्टानों पर सृष्टि
डाल पद-चिन्हों चली गंभीर,
देव,गंधर्व,हसुर की पंक्ति
अनुसरण करती उसे अधीर।"
"एक तुम, यह विस्तृत भू-खंड
प्रकृति वैभव से भरा अमंद,
कर्म का भोग, भोग का कर्म,
यही जड का चेतन-आनन्द।
अकेले तुम कैसे असहाय
यजन कर सकते? तुच्छ विचार।
तपस्वी आकर्षण से हीन
कर सके नहीं आत्म-विस्तार।
दब रहे हो अपने ही बोझ
खोजते भी नहीं कहीं अवलंब,
तुम्हारा सहचर बन कर क्या न
उऋण होऊँ मैं बिना विलंब?
समर्पण लो-सेवा का सार,
सजल संसृति का यह पतवार,
आज से यह जीवन उत्सर्ग
इसी पद-तल में विगत-विकार
दया, माया, ममता लो आज,
मधुरिमा लो, अगाध विश्वास,
हमारा हृदय-रत्न-निधि
स्वच्छ तुम्हारे लिए खुला है पास।
बनो संसृति के मूल रहस्य,
तुम्हीं से फैलेगी वह बेल,
विश्व-भर सौरब से भर जाय
सुमन के खेलो सुंदर खेल।"
"और यह क्या तुम सुनते नहीं
विधाता का मंगल वरदान-
'शक्तिशाली हो, विजयी बनो'
विश्व में गूँज रहा जय-गान।
डरो मत, अरे अमृत संतान
अग्रसर है मंगलमय वृद्धि,
पूर्ण आकर्षण जीवन केंद्र
खिंची आवेगी सकल समृद्धि।