वासना / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
रचनाकार: जयशंकर प्रसाद
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चल पडे कब से हृदय दो,
पथिक-से अश्रांत,
यहाँ मिलने के लिये,
जो भटकते थे भ्रांत।
एक गृहपति, दूसरा था
अतिथि अगत-विकार,
प्रश्न था यदि एक,
तो उत्तत द्वितीत उदार।
एक जीवन-सिंधु था,
तो वह लहर लघु लोल,
एक नवल प्रभात,
तो वह स्वर्ण-किरण अमोल।
एक था आकाश वर्षा
का सजल उद्धाम,
दूसरा रंजित किरण से
श्री-कलित घनश्याम।
नदी-तट के क्षितिज में
नव जलद सांयकाल-
खेलता दो बिजलियों से
ज्यों मधुरिमा-जाल।
लड रहे थे अविरत युगल
थे चेतना के पाश,
एक सकता था न
कोई दूसरे को फाँस।
था समर्पण में ग्रहण का
एक सुनिहित भाव,
थी प्रगति, पर अडा रहता
था सतत अटकाव।
गिर रहा निस्तेज गोलक
जलधि में असहाय,
घन-पटल में डूबता था
किरण का समुदाय।
कर्म का अवसाद दिन से
कर रहा छल-छंद,
मधुकरी का सुरस-
संचय हो चला अब बंद।
उठ रही थी कालिमा
धूसर क्षितिज से दीन,
भेंटता अंतिम अरूण
आलोक-वैभव-हीन।
यह दरिद्र-मिलन रहा
रच एक करूणा लोक,
शोक भर निर्जन निलय से
बिछुडते थे कोक।
मनु अभी तक मनन करते
थे लगाये ध्यान,
काम के संदेश से ही
भर रहे थे कान।
इधर गृह में आ जुटे थे
उपकरण अधिकार,
शस्य, पशु या धान्य
का होने लगा संचार।
नई इच्छा खींच लाती,
अतिथि का संकेत-
चल रहा था सरल-शासन
युक्त-सुरूचि-समेत।
देखते थे अग्निशाला
से कुतुहल-युक्त,
मनु चमत्कृत निज नियति
का खेल बंधन-मुक्त।
एका माया आ रहा था
पशु अतिथि के साथ,
हो रहा था मोह
करुणा से सजीव सनाथ।
चपल कोमलकर रहा
फिरसतत पशु के अंग,
स्नेह से करता चमर-
उदग्रीव हो वह संग।
कभी पुलकित रोमराजी
से शरीर उछाल,
भाँवरों से निज बनाता
अतिथि बदन निहार,
सकल संचित-स्नेह
देता दृष्टि-पथ से ढार।
और वह पुचकारने का
स्नेह शबलित चाव,
मंजु ममता ससे मिला
बन हृदय का सदभाव।
देखते-ही-देखते
दोनों पहुँच कर पास,
लगे करने सरल शोभन
मधुर मुग्ध विलास।
वह विराग-विभूति
ईर्षा-पवन से हो व्यस्त
बिखरती थी और खुलतते
ज्वलन-कण ज अस्त।
किन्तु यह क्या?
एक तीखी घूँट, हिचकी आह
कौन देता है हृदय में
वेदनामय डाह?
"आह यह पशु और
इतना सरल सुन्दर स्नेह
पल रहे मेरे दिये जो
अन्न से इस गेह।
मैं? कहाँ? लेलिया करते
सभी निज भाग,
और देते फेंक मेरा
प्राप्य तुच्छ विराग
अरी नीच कृतघ्न
पिच्छल-शिला-संलग्न,
मलिन काई-सी करेगी
कितने हृदय भग्न?
हृदय का राजस्व अपहृत
कर अधम अपराध,
दस्यु मुझसे चाहते हैं
सुक सदा निर्बाध।
विश्व में जो सरल सुंदर
हो विभूति महान,
सभी मेरी हैं, सभी
करती रहें प्रतिदान।
यही तो, मैं ज्वलित
वाडव-वह्नि नित्य-अशांत,
सिंधु लहरों सा करें
शीतल मुझे सब शांत।"
आ गया फिर पास
क्रीडाशील अतिथि उदार,
चपल शैशव सा
मनोहर भूल का ले भार।
कहा "क्यों तुम अभी
बैठे ही रहे धर ध्यान,
देखती हैं आँख कुछ,
सुनते रहे कुछ कान-
मन कहीं, यह क्या हुआ?
आज कैसा रंग? "
नत हुआ फण दृप्त
ईर्षा का, विलीन उमंग।
और सहलाने लागा कर-
कमल कोमल कांत,
देख कर वह रूप -सुषमा
मनु हुए कुछ शांत।
कहा " अतिथि कहाँ रहे
तुम किधर थे अज्ञात?
और यह सहचर तुम्हारा
कर रहा ज्यों बात-
किसी सुलभ भविष्य की,
क्यों आज अधिक अधीर?
मिल रहा तुमसे चिरंतन
स्नेह सा गंभीर?
कौन हो तुम खींचते यों
मुझे अपनी ओर
ज्योत्सना-निर्झर ठहरती
ही नहीं यह आँख,
तुम्हे कुछ पहचानने की
खो गयी-सी साख।
कौन करूण रहस्य
है तुममें छिपा छविमान?
लता वीरूध दिया करते
जिसमें छायादान।
पशु कि हो पाषाण
सब में नृत्य का नव छंद,
एक आलिगंन बुलाता
सभा का सानंद।
राशि-राशि बिखर पडा
है शांत संचित प्यार,
रख रहा है उसे ढोकर
दीन विश्व उधार।
देखता हूँ चकित जैसे
ललित लतिका-लास,
अरूण घन की सजल
छाया में दिनांत निवास-
और उसमें हो चला
जैसे सहज सविलास,
मदिर माधव-यामिनी का
धीर-पद-विन्यास।
आह यह जो रहा
सूना पडा कोना दन-
ध्वस्त मंदिर का,
बसाता जिसे कोई भी न-
उसी में विश्राम माया का
अचल आवास,
अरे यह सुख नींद कैसी,
हो रहा हिम-हास
वासना की मधुर छाया
स्वास्थ्य, बल, विश्राम
हदय की सौंदर्य-प्रतिमा
कौन तुम छविधाम
कामना की किरन का
जिसमें मिला हो ओज,
कौन हो तुम, इसी
भूले हृदय की चिर-खोज
कुंद-मंदिर-सी हँसी
ज्यों खुली सुषमा बाँट,
क्यों न वैसे ही खुला
यह हृदय रुद्ध-कपाट?
कहा हँसकर "अतिथि हूँ मैं,
और परिचय व्यर्थ,
तुम कभी उद्विग्न
इतने थे न इसके अर्थ।
चलो, देखो वह चला
आता बुलाने आज-
सरल हँसमुख विधु जलद-
लघु-खंड-वाहन साज