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वासना / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
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रचनाकार: जयशंकर प्रसाद
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कालिमा धुलने लगी
घुलने लगा आलोक,
इसी निभृत अनंत में
बसने लगा अब लोक।
इस निशामुख की मनोहर
सुधामय मुसक्यान,
देख कर सब भूल जायें
दुख के अनुमान।
देख लो, ऊँचे शिखर का
व्योम-वुंबन-व्यस्त-
लौटना अंतिम किरण का
और होना अस्त।
चलो तो इस कौमुदी में
देख आवें आज,
प्रकृति का यह स्वप्न-शासन,
साधना का राज।"
सृष्टि हँसने लगी
आँखों में खिला अनुराग,
राग-रंजित चंद्रिका थी,
उडा सुमन-पराग।
और हँसता था अतिथि
मनु का पकडकर हाथ,
चले दोनों स्वप्न-पत में,
स्नेह-संबल साथ।