भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बहाना ढूँढते रहते हैं / जावेद अख़्तर
Kavita Kosh से
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:23, 2 अप्रैल 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= जावेद अख़्तर |संग्रह= तरकश / जावेद अख़्तर }} [[Category:ग…)
बहाना ढूँढते रहते हैं कोई रोने का
हमें ये शौक़ है क्या आस्तीं भिगोने का
अगर पलक पे है मोती तो ये नहीं काफ़ी
हुनर भी चाहिए अल्फ़ाज़<ref>शब्द</ref> में पिरोने का
जो फ़स्ल ख़्वाब की तैयार है तो ये जानो
कि वक़्त आ गया फिर दर्द कोई बोने का
ये ज़िन्दगी भी अजब कारोबार है कि मुझे
ख़ुशी है पाने की कोई न रंज खोने का
है पाश-पाश<ref>चकनाचूर</ref> मगर फिर भी मुस्कुराता है
वो चेहरा जैसे हो टूटे हुए खिलौने का
शब्दार्थ
<references/>