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सूखे पत्ते तनफ्फुर और स्याह रात / हरकीरत हकीर
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सूखे पत्ते सी ज़िन्द
टूट के गिरी यूँ....
के इक कोरी सी नज़्म
ज़िस्म में उतर गई है....
काँपा है फिर वजूद
लफ़्ज़ों की अदालत में
रात तनफ्फुर<ref>घृणा, नफ़रत</ref> के फूल
उगाये बैठी है...
इक हँसी सी उठी
दर्द की गली में...
ख़ामोशी लबों से
जिरह किये बैठी हैं....
छीना है ये किसने
पत्तों से बूंदों का लम्स<ref>स्पर्श</ref>
वक़्त की मुट्ठी में उम्रें
गाफ़िल<ref>संज्ञाहीन</ref> हुई बैठी हैं...
लाँघ गया इक ख़्याल
फिर तेरी दहलीज़ आज
बोसीदा<ref>सड़ी-गली</ref> सी लाशें
ज़मीं खोदती हैं....
ये कौन छोड़ गया
उँगलियों के निशाँ आज
के मुहब्बत दिल की सीढियाँ
उतरने लगी है....
अय धूप
संभल कर चलाकर
इन रास्तों पे जरा
यहाँ स्याह रात
हुस्न लिए बैठी है....!!
शब्दार्थ
<references/>