ईर्ष्या / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
लेखक: जयशंकर प्रसाद
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चमडे उनके आवरण रहे
ऊनों से चले मेरा काम,
वे जीवित हों मांसल बनकर
हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम।
वे द्रोह न करने के स्थल हैं
जो पाले जा सकते सहेतु,
पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं
तो भव-जलनिधि में बनें सेतु।"
"मैं यह तो मान नहीं सकता
सुख-सहज लब्ध यों छूट जायँ,
जीवन का जो संघर्ष चले
वह विफल रहे हम चल जायँ।
काली आँखों की तारा में-
मैं देखूँ अपना चित्र धन्य,
मेरा मानस का मुकुर रहे
प्रतिबिबित तुमसे ही अनन्य।
श्रद्धे यह नव संकल्प नहीं-
चलने का लघु जीवन अमोल,
मैं उसको निश्चय भोग चलूँ
जो सुख चलदल सा रहा डोल
देखा क्या तुमने कभी नहीं
स्वर्गीय सुखों पर प्रलय-नृत्य?
फिर नाश और चिर-निद्रा है
तब इतना क्यों विश्वास सत्य?
यह चिर-प्रशांत-मंगल की
क्यों अभिलाषा इतनी जाग रही?
यह संचित क्यों हो रहा स्नेह
किस पर इतनी हो सानुराग?
यह जीवन का वरदान-मुझे
दे दो रानी-अपना दुलार,
केवल मेरी ही चिता का
तव-चित्त वहन कर रहे भार।
मेरा सुंदर विश्राम बना सृजता
हो मधुमय विश्व एक,
जिसमें बहती हो मधु-धारा
लहरें उठती हों एक-एक।"
"मैंने तो एक बनाया है
चल कर देखो मेरा कुटीर,"
यों कहकर श्रद्धा हाथ पकड
मनु को वहाँ ले चली अधीर।
उस गुफा समीप पुआलों की
छाजन छोटी सी शांति-पुंज,
कोमल लतिकाओं की डालें
मिल सघन बनाती जहाँ कुमज।
थे वातायन भी कटे हुए-
प्राचीर पर्णमय रचित शुभ्र,
आवें क्षण भर तो चल जायँ-
रूक जायँ कहीं न समीर, अभ्र।
'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''