भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
टूट कर भी आइने डरते नहीं / नीरज गोस्वामी
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:31, 24 अप्रैल 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीरज गोस्वामी }} {{KKCatGhazal}} <poem> झूठ को ये सच कभी कहते नह…)
झूठ को ये सच कभी कहते नहीं
टूट कर भी आइने डरते नहीं
हो गुलों की रंगो खुशबू अलहदा
पर जड़ों में फ़र्क तो दिखते नहीं
जिनके पहलू में धरी तलवार हो
फूल उनके हाथों में जँचते नहीं
अब शहर में घूमते हैं शान से
जंगलों में भेड़िये मिलते नहीं
साँप से तुलना न कर इंसान की
बिन सताए वो कभी डसते नहीं
कुछ की होंगीं तूने भी गुस्ताखियाँ
ख़ार अपने आप तो चुभते नहीं
बस खिलौने की तरह हैं हम सभी
अपनी मरज़ी से कभी चलते नहीं
फल लगी सब डालियाँ बेकार हैं
गर परिंदे इन पे आ बसते नहीं
ख़्वाहिशें नीरज बहुत सी दिलमें हैं
ये अलग है बात की कहते नहीं