चार सौ सोलह, सेक्टर अड़तीस में
हम दो रहते हैं
समय और स्थान के भूगोल को
दो कमरों में हमने
समेटना चाहा है
बॉंटना चाहा है
खुद को
हरे-पीले पत्तों में
हमारे छोटे से सुख-दुःख हैं
हम झगड़ते हैं, प्यार करते हैं
दूर-सुदूर देशों तक
हमारे धागे
पहुंचते हैं स्पंदित होंठों तक
आक्रोश भरे दिन-रात
आ बिखरते हैं
चार सौ सोलह, सेक्टर अड़तीस
के दो कमरों में
हमारे आस्मान में
एक चॉंद उगता है
--Pradeep Jilwane 06:14, 25 अप्रैल 2010 (UTC)