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रंग : छह कविताएँ-5 (काला) / एकांत श्रीवास्तव
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इस रंग से लिपटकर अभी सोये हैं
धरती के भीतर
कपास और सीताफल के बीज
दिया-बाती के बाद
इसी रंग को सौंप देते हैं हम
अपने दिन भर की थकान
और उधार ले लेते हैं ज़रा-सी नींद
यह रंग दोने में भरे उन जामुनों का है
जो बाज़ार में बिककर
न जाने कितने घरों के लिए
नोन-तेल-लकड़ी में बदल जाएँगे
यह रंग तुम्हारे बालों के मुलायम समुद्र का है
जो संगीत और सुगन्ध से भरा है
और जहॉं मैं सिर से पॉंव तक डूब गया हूँ
यह भादों की उन घटाओं का रंग है
जिन्हें छुपाए रखती है माँ अपनी पलकों में
और डूबने से बचा रहता है घर
कितनी चीख़ें, हत्याएँ और रक्त लिए
आ धमकता है यह रंग
सूरज के डूबते ही
और एक दिये के सामने
पराजित रहता है रात भर।