भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहाड़ लाज से झुक गये थे / लाल्टू

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:40, 27 अप्रैल 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस बार
पहाड़ों से उतरते
तुम्‍हें देखता रहा

तुम्‍हारी चाही सन्‍तान को
पहाड़ी बादल
मेरे रोओं में बाँटते रहे

सोचता रहा
कैसी होगी वह दुनिया
जहाँ तुम्‍हारी मेरी
सन्‍तान खिलेगी

उसे हम
पहाड़ तो जरूर देंगे
जब तुम उसे
मेरी बाँहों में देख
खुश हो जाओ
मैं धीरे से उसे कहूँगा

कैसे उसकी माँ को
मैंने पहाड़ों पर चूमा था
और
लाज से झुक गए थे पहाड़।