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कैसे बँध जाऊँ ब्याह में / अशोक तिवारी

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माँ मेरी बतला दे मुझको
कैसे बँध जाऊँ ब्याह में
कैसे जोड़ूँ दिल के रिश्ते
बैठूँ कैसे अनजानी छाँव में

बहुत दूर का रास्ता मेरा
नहीं चाहती सिर्फ़ अकेले
कौन साथ में होगा मेरे
कितने होंगे मेले-ठेले

कहाँ में देखूँ किसको देखूँ
कैसे देखूँ कब तक देखूँ
देखूँ देखूँ या न देखूँ
और देखकर भी न देखूँ

आसपास मदेखूँ कुछ तो
घात लगाए बैठे हैं
मिले जो मौका एक उन्हें
जो आँख टिकाए बैठे हैं

एक और नदी है मेरे भीतर
जो बहती ही जाती है
बहते बहते जो दुनिया की
हरसंभव प्यास बुझाती है

ऐसे में बहना मेरा माँ
क्या कुछ कहकर जाता है
रिश्तों की बुनियाद से मेरा
मानवता का नाता है

एक बात मैं कहती हूँ माँ
लोभ नहीं न लालच ही
बहना मेरा धर्म करम
और सच्चाई के साथ रही

साफ-साफ बहना मुझको माँ
आता भी और भाता भी
उजला-उजला पानी सा मन
मेरे मन में गाता भी

बंधन के धागों को मैंने
जाना भी, पहचाना भी
बाँध की ताक़त देखी मैंने
सीमाओं को माना भी

मेरी प्यारी माँ तू मुझको
एक बात तो बतला दे
कौन है अपना कौन पराया
राह मुझे तू दिखला दे

कितने दुखों को सहके तूने
पाला हमको जीवनभर
घर-घर करके पूरे जीवन
मिली न फिर भी सही डगर

अपना कहके हक जमाते
ऐसों को में खूब जानती
खून के रिश्ते खून से बनते
नहीं मानती, नहीं मानती

बेहतर है आऊँ मैं काम
खेतों और खलिहानों में
सागर से मिलने की चाहत
रही है सिर्फ़ ख़यालों में

एक नदी हूँ बहना मुझको
पर क्या मिलन अवश्यंभावी
रिश्तों को ढोने से अच्छा
ढूँढूँ बेहतर भविष्य की चाबी