भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ओ पृथ्वी-1 / एकांत श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:09, 1 मई 2010 का अवतरण
हमारी आँखों में
कसमसा रहा है जल
ओ पृथ्वी
अभी रहेगा तेरा हरापन
तेरी कोख में सोया हुआ बीज
पौधा भी बनेगा, पेड़ भी
आँसुओं में नमक की तरह
घुल गया है गुस्सा
ओ पृथ्वी
अभी रहेगी तेरी ऊष्मा
पककर तैयार होंगे जिसमें
कुम्हार के घड़ों की तरह
हमारे सपने
धीरे-धीरे सही
टूट रहा है सन्नाटा
उठ रही है हमारी बाँसुरी से एक धुन
हमारी थकान में फैल रहा है
भीगे पत्तों का ताज़ापन
ओ पृथ्वी!
अभी रहेगा तेरा संगीत
जिसे गाते-गाते लड़ेंगे हम
तेरी ऊष्मा
हरेपन
और संगीत के लिए।