Last modified on 22 फ़रवरी 2007, at 15:42

इड़ा / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

Bhawnak2002 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 15:42, 22 फ़रवरी 2007 का अवतरण

लेखक: जयशंकर प्रसाद

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~


"किस गहन गुहा से अति अधीर

झंझा-प्रवाह-सा निकला

यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर

ले साथ विकल परमाणु-पुंज


नभ, अनिल, अनल,

भयभीत सभी को भय देता

भय की उपासना में विलीन

प्राणी कटुता को बाँट रहा


जगती को करता अधिक दीन

निर्माण और प्रतिपद-विनाश में

दिखलाता अपनी क्षमता

संघर्ष कर रहा-सा सब से,


सब से विराग सब पर ममता

अस्तित्व-चिरंतन-धनु से कब,

यह छूट पड़ा है विषम तीर

किस लक्ष्य भेद को शून्य चीर?


देखे मैंने वे शैल-श्रृंग

जो अचल हिमानी से रंजित,

उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तुंग

अपने जड़-गौरव के प्रतीक


वसुधा का कर अभिमान भंग

अपनी समाधि में रहे सुखी,

बह जाती हैं नदियाँ अबोध

कुछ स्वेद-बिंदु उसके लेकर,


वह स्मित-नयन गत शोक-क्रोध

स्थिर-मुक्ति, प्रतिष्ठा मैं वैसी

चाहता नहीं इस जीवन की

मैं तो अबाध गति मरुत-सदृश,


हूँ चाह रहा अपने मन की

जो चूम चला जाता अग-जग

प्रति-पग में कंपन की तरंग

वह ज्वलनशील गतिमय पतंग।


अपनी ज्वाला से कर प्रकाश

जब छोड़ चला आया सुंदर

प्रारंभिक जीवन का निवास

वन, गुहा, कुंज, मरू-अंचल में हूँ


खोज रहा अपना विकास

पागल मैं, किस पर सदय रहा-

क्या मैंने ममता ली न तोड़

किस पर उदारता से रीझा-


किससे न लगा दी कड़ी होड़?

इस विजन प्रांत में बिलख रही

मेरी पुकार उत्तर न मिला

लू-सा झुलसाता दौड़ रहा-


कब मुझसे कोई फूल खिला?

मैं स्वप्न देखत हूँ उजड़ा-

कल्पना लोक में कर निवास

देख कब मैंने कुसुम हास


इस दुखमय जीवन का प्रकाश

नभ-नील लता की डालों में

उलझा अपने सुख से हताश

कलियाँ जिनको मैं समझ रहा


वे काँटे बिखरे आस-पास

कितना बीहड़-पथ चला और

पड़ रहा कहीं थक कर नितांत

उन्मुक्त शिखर हँसते मुझ पर-


रोता मैं निर्वासित अशांत

इस नियति-नटी के अति भीषण

अभिनय की छाया नाच रही

खोखली शून्यता में प्रतिपद-


असफलता अधिक कुलाँच रही

पावस-रजनी में जुगनू गण को

दौड़ पकड़ता मैं निराश

उन ज्योति कणों का कर विनाश


जीवन-निशीथ के अंधकार

तू, नील तुहिन-जल-निधि बन कर

फैला है कितना वार-पार

कितनी चेतनता की किरणें हैं


डूब रहीं ये निर्विकार

कितना मादकतम, निखिल भुवन

भर रहा भूमिका में अबंग

तू, मूर्त्तिमान हो छिप जाता


प्रतिपल के परिवर्त्तन अनंग

ममता की क्षीण अरुण रेख

खिलती है तुझमें ज्योति-कला

जैसे सुहागिनी की ऊर्मिल


अलकों में कुंकुमचूर्ण भला

रे चिरनिवास विश्राम प्राण के

मोह-जलद-छया उदार

मायारानी के केशभार


जीवन-निशीथ के अंधकार

तू घूम रहा अभिलाषा के

नव ज्वलन-धूम-सा दुर्निवार

जिसमें अपूर्ण-लालसा, कसक


चिनगारी-सी उठती पुकार

यौवन मधुवन की कालिंदी

बह रही चूम कर सब दिंगत

मन-शिशु की क्रीड़ा नौकायें


बस दौड़ लगाती हैं अनंत

कुहुकिनि अपलक दृग के अंजन

हँसती तुझमें सुंदर छलना

धूमिल रेखाओं से सजीव


चंचल चित्रों की नव-कलना

इस चिर प्रवास श्यामल पथ में

छायी पिक प्राणों की पुकार-

बन नील प्रतिध्वनि नभ अपार


उजड़ा सूना नगर-प्रांत

जिसमें सुख-दुख की परिभाषा

विध्वस्त शिल्प-सी हो नितांत

निज विकृत वक्र रेखाओं से,


प्राणी का भाग्य बनी अशांत

कितनी सुखमय स्मृतियाँ,

अपूर्णा रूचि बन कर मँडराती विकीर्ण

इन ढेरों में दुखभरी कुरूचि


दब रही अभी बन पात्र जीर्ण

आती दुलार को हिचकी-सी

सूने कोनों में कसक भरी।

इस सूखर तरु पर मनोवृति


आकाश-बेलि सी रही हरी

जीवन-समाधि के खँडहर पर जो

जल उठते दीपक अशांत

फिर बुझ जाते वे स्वयं शांत।


यों सोच रहे मनु पड़े श्रांत

श्रद्धा का सुख साधन निवास

जब छोड़ चले आये प्रशांत

पथ-पथ में भटक अटकते वे


आये इस ऊजड़ नगर-प्रांत

बहती सरस्वती वेग भरी

निस्तब्ध हो रही निशा श्याम

नक्षत्र निरखते निर्मिमेष


वसुधा को वह गति विकल वाम

वृत्रघ्नी का व जनाकीर्ण

उपकूल आज कितना सूना

देवेश इंद्र की विजय-कथा की


स्मृति देती थी दुख दूना

वह पावन सारस्वत प्रदेश

दुस्वप्न देखता पड़ा क्लांत

फैला था चारों ओर ध्वांत।


"जीवन का लेकर नव विचार

जब चला द्वंद्व था असुरों में

प्राणों की पूजा का प्रचार

उस ओर आत्मविश्वास-निरत


सुर-वर्ग कह रहा था पुकार-

मैं स्वयं सतत आराध्य आत्म-

मंगल उपासना में विभोर

उल्लासशीलता मैं शक्ति-केन्द्र,


किसकी खोजूँ फिर शरण और

आनंद-उच्छलित-शक्ति-स्त्रोत

जीवन-विकास वैचित्र्य भरा

अपना नव-नव निर्माण किये


रखता यह विश्व सदैव हरा,

प्राणों के सुख-साधन में ही,

संलग्न असुर करते सुधार

नियमों में बँधते दुर्निवार


था एक पूजता देह दीन

दूसरा अपूर्ण अहंता में

अपने को समझ रहा प्रवीण

दोनों का हठ था दुर्निवार,


दोनों ही थे विश्वास-हीन-

फिर क्यों न तर्क को शस्त्रों से

वे सिद्ध करें-क्यों हि न युद्ध

उनका संघर्ष चला अशांत


वे भाव रहे अब तक विरुद्ध

मुझमें ममत्वमय आत्म-मोह

स्वातंत्र्यमयी उच्छृंखलता

हो प्रलय-भीत तन रक्षा में


पूजन करने की व्याकुलता

वह पूर्व द्वंद्व परिवर्त्तित हो

मुझको बना रहा अधिक दीन-

सचमुच मैं हूँ श्रद्धा-विहीन।"


मनु तुम श्रद्धाको गये भूल

उस पूर्ण आत्म-विश्वासमयी को

उडा़ दिया था समझ तूल

तुमने तो समझा असत् विश्व


जीवन धागे में रहा झूल

जो क्षण बीतें सुख-साधन में

उनको ही वास्तव लिया मान

वासना-तृप्ति ही स्वर्ग बनी,


यह उलटी मति का व्यर्थ-ज्ञान

तुम भूल गये पुरुषत्त्व-मोह में

कुछ सत्ता है नारी की

समरसता है संबंध बनी


अधिकार और अधिकारी की।"

जब गूँजी यह वाणी तीखी

कंपित करती अंबर अकूल

मनु को जैसे चुभ गया शूल।


"यह कौन? अरे वही काम

जिसने इस भ्रम में है डाला

छीना जीवन का सुख-विराम?

प्रत्यक्ष लगा होने अतीत


जिन घड़ियों का अब शेष नाम

वरदान आज उस गतयुग का

कंपित करता है अंतरंग

अभिशाप ताप की ज्वाला से


जल रहा आज मन और अंग-"

बोले मनु-" क्या भ्रांत साधना

में ही अब तक लगा रहा

क्ा तुमने श्रद्धा को पाने


के लिए नहीं सस्नेह कहा?

पाया तो, उसने भी मुझको

दे दिया हृदय निज अमृत-धाम

फिर क्यों न हुआ मैं पूर्ण-काम?"


"मनु उसने त कर दिया दान

वह हृदय प्रणय से पूर्ण सरल

जिसमें जीवन का भरा मान

जिसमें चेतना ही केवल


निज शांत प्रभा से ज्योतिमान

पर तुमने तो पाया सदैव

उसकी सुंदर जड़ देह मात्र

सौंदर्य जलधि से भर लाये


केवल तुम अपना गरल पात्र

तुम अति अबोध, अपनी अपूर्णता को

न स्वयं तुम समझ सके

परिणय जिसको पूरा करता


उससे तुम अपने आप रुके

कुछ मेरा हो' यह राग-भाव

संकुचित पूर्णता है अजान

मानस-जलनिधि का क्षुद्र-यान।


हाँ अब तुम बनने को स्वतंत्र

सब कलुष ढाल कर औरों पर

रखते हो अपना अलग तंत्र

द्वंद्वों का उद्गम तो सदैव


शाश्वत रहता वह एक मंत्र

डाली में कंटक संग कुसुम

खिलते मिलते भी हैं नवीन

अपनी रुचि से तुम बिधे हुए


जिसको चाहे ले रहे बीन

तुमने तो प्राणमयी ज्वाला का

प्रणय-प्रकाश न ग्रहण किया

हाँ, जलन वासना को जीवन


भ्रम तम में पहला स्थान दिया-

अब विकल प्रवर्त्तन हो ऐसा जो

नियति-चक्र का बने यंत्र

हो शाप भरा तव प्रजातंत्र।


यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि

द्वयता मेम लगी निरंतर ही

वर्णों की करति रहे वृष्टि

अनजान समस्यायें गढती


रचती हों अपनी विनिष्टि

कोलाहल कलह अनंत चले,

एकता नष्ट हो बढे भेद

अभिलषित वस्तु तो दूर रहे,


हाँ मिले अनिच्छित दुखद खेद

हृदयों का हो आवरण सदा

अपने वक्षस्थल की जड़ता

पहचान सकेंगे नहीं परस्पर


चले विश्व गिरता पड़ता

सब कुछ भी हो यदि पास भरा

पर दूर रहेगी सदा तुष्टि

दुख देगी यह संकुचित दृष्टि।


अनवरत उठे कितनी उमंग

चुंबित हों आँसू जलधर से

अभिलाषाओं के शैल-श्रृंग

जीवन-नद हाहाकार भरा-


हो उठती पीड़ा की तरंग

लालसा भरे यौवन के दिन

पतझड़ से सूखे जायँ बीत

संदेह नये उत्पन्न रहें


उनसे संतप्त सदा सभीत

फैलेगा स्वजनों का विरोध

बन कर तम वाली श्याम-अमा

दारिद्रय दलित बिलखाती हो यह


शस्यश्यामला प्रकृति-रमा

दुख-नीरद में बन इंद्रधनुष

बदले नर कितने नये रंग-

बन तृष्णा-ज्वाला का पतंग।


'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''