भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जाड़े की भोर / नन्दल हितैषी

Kavita Kosh से
Amitabh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:46, 1 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नन्दल हितैषी }} {{KKCatKavita}} <poem> गौरैय्ये के पंख पर सवार …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गौरैय्ये के पंख पर सवार
धूप का एक चंचल टुकड़ा
उछला और छिटक गया आँगन में,
देखते नहीं
खरगोशनुमा धूप के वृत्त में
नमी का एहसास?
आज फिर उठा लाया है
’डोम’ कौवा
किसी परिन्दे का धड़
वैसे ही खूनिल / मुलायम / रोयेंदार ....
और पंजों तले
चिचोड़ रहा बार - बार ....
धुले धूप का चटकपन
पसर रहा है धुन्धला हो कर
मुँडेरी पर.
बँटने लगे हैं धूप के टुकड़े
आँगन में,
चाय और बासी रोटी की तरह.
फुर्र ऽ ऽ हुई गौरैय्या.
अब भी बरकरार है
छाजन पर धूप का टुकड़ा.
पिछवाड़े मिल की चिमनी
रोज की तरह उगलने लगी है
लहराता हुआ
धुँवे का गहरापन
मद्धिम होने लगी है
आँगन और छाजन पर
खरगोशनुमा, धूप का टुकड़ा
हाथी में तब्दील होने लगा है
और नापने लगा पूरा आँगन,
डोम कौवा
खूनी, रोयेंदार
और मुलायम धड़ लेकर
उड़ गया है
मिल मैनेजर की छत पर
..... और नन्हीं चिड़िया
धूप का हिस्सा बाँटने
फिर आँगन में ....
उड़ गई है.