Last modified on 2 मई 2010, at 10:21

समय के साथ / परमेन्द्र सिंह

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:21, 2 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परमेन्द्र सिंह |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> समय के साथ गुम…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

समय के साथ
गुम गईं बहुत-सी चीज़ें...

समय के साथ
गुम गया वह जंगल
जिससे आसमान दिखाई नहीं देता था

गुम गया
बुरे दिनों का उजाला
जिसकी जगह ले ली
उजले दिनों के अँधेरों ने

गुम गया बेरी का वह बाग
वह कुआँ
जिसमें सारी पोथियाँ फेंक दी थीं

अनुभव के शास्त्र तले दबी
उस बच्चे की सिसकियाँ
गूँजती हैं
दिमाग के खोखलेपन में

समय के साथ
गुम गईं छोटी-छोटी चिन्ताएँ
उनकी जगह ले ली बड़ी-बड़ी चिन्ताओं ने
जो लगातार खाती हैं
और लुभाती हैं

समय के साथ गुम गईं
माँ-बाप की हिदायतें
बुजुर्गों की नसीहतें
और
अपने एकान्त में बड़बड़ाती घर की देहरी

समय के साथ
गुम गया
मेरा चेहरा, जिसे मैं पहचानता था
उसकी जगह है ऐसा चेहरा
जिसे दुनिया पहचानती है

समय के साथ गुम गया वह सुख
जो उदासी से जन्मा था
अब चारों ओर से घिरा हूँ
सुख से उपजी उदासी से

समय के साथ
गुम गईं बहुत-सी चीज़ें
यात्रा में पीछे छूटे
सहयात्रियों की विदाई की मुसकान की तरह।