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कॉमन मॅन

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कॉमन मैन तुम ने वोट पर ठप्पा लगाया और ‘संसद’ का जन्म हुआ तुम ने उनको राजा मान लिया,वे विधायक,सांसद बन गए, तुम ने क़ानुन के आगे सिर झुकाया,संसद सार्वभौम हो गई। तुम ने दफ्तर के चक्कर काट-काट कर लाल फीताशाही से फाँसी लगवा ली, तुम ने सपनों को पुकारा,उनके एजेंडा ने जन्म लिया तुम लोकतंत्र के पालनहार,माता-पिता सब कुछ घोषित हो गए । उन्होंने तुम्हारा सम्मान किया,तुम वोटर राजा बन गए वे सभा में भाषण देने लगे,तुम आज्ञापालक श्रोता बन गए वे कानून बनाने लगे,तुम कोल्हु के बैल बन गए वे नोटों पर नचवाने लगे,तुम उन के प्रचार में बंदर बन गए। बम-विस्फोट के ठीकरों में तुम निर्वासन की भीड में तुम भुखमरी,कुपोषण की मौत में तुम उन की घोषणा की ओर ताकने वालों में तुम आत्महत्या करने वाले किसानों में तुम बाँध बनने पर सब कुछ खोने वालों में तुम हर्जाना पाने के लिए चक्कर काटने वालों में तुम फुटपाथ पर रह कर ‘मेरा भारत महान’ घोषणा देने वालों में तुम तुम नजर आते हो हमेशा राशन की कतार से मतदान की कतार तक कभी कर अदा करते हुए,कभी लाल फीताशाही के चर्खे में घुटते हुए लोकल में टंगे हुए, भीड में तितर-बितर बिन चेहरा तुम बगुलों के बँगलों पर याचना करते हो,वे मस्ती में तुम्हें छेडते हैं तुम्हारे ‘विश्व दर्शन’ से मेरा अर्जुन करने वाले हे असाधारण “साधारण” मानव! झोपडपट्टी के नरक से दूर जंगल में रहते हुए तुमने अपने दिल का आक्रोश,बगावत किस खाई में फेंक दी है? ”सिसीफस” के समान बदन पर पत्थर उठा कर चुप चाप तुम्हारा पहाड की चोटी की ओर जाना बार-बार क्या तुम्हारे इस मौन,सहनशीलता को संत करार दूं? या तुम्हें डरपोक करार करके तुम्हें फटकार दूं? तुम्हारे स्थितप्रज्ञ की गीता लोकतंत्र के करुण पराजय की ध्वजा बनकर लहरा रही है लाल किले पर तुम स्वयं लक्ष्मण-रेखा खिंच कर मतों की भीख डालते गए वे रावण बनकर तुम्हारा हरण करके तुम्हें स्वप्न कांचन मृग दिखाते रहे। तुम्हारे साधारण रहने पर ही असाधारण लोकतंत्र का सिंहासन आबाद है। अपनी सहनशीलता को अब मिटा दो। संसद के सामने वह “महात्मा” आँखें बंद करके बैठा है और यहाँ तुम पुतला बनकर शरारती नजरों से सब कुछ बरदाश्त करते जा रहो हो। पुतला होना तुम्हारी सामर्थ्य है या तुम्हारी सिमा? यह सोच कर मैं पुतला बन रहा हूँ, हे कॉमन मैन !

(मूल मराठी कविता- हेरंब कुलकर्णी हिंदी अनुवाद- विजय प्रभाकर कांबले) साभार-समकालीन भारतीय साहित्य, साहित्य अकादमी के अंक ११० (नवबंर-दिसंबर २००३) में प्रकाशित। हमारे मित्र हेरंब जी ने सिंबॉयसिस पुणे स्थित कैंपस में स्थापित भारत का प्रथम कॉमन मैन के पुतले को देख कर यह कविता बनायी।