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तुम्हारे बिन / रमेश प्रजापति

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तुम्हारे बिन
सूरज को सूरज की तरह और
चाँद को चाँद की तरह नहीं देख पाता
अँधेरी गुफा-सी रात
घनी अँधेरी हो गई है
क्षितिज के उस पार
पहाड़ से लुढ़की
लाल गेंद को
अथक, बच्चे-सा समय
रोज़ उठाकर फेंक देता है
समुद्र के पश्चिमी छोर पर
जिसे उठा लाती हो तुम
मुँह-अँधेरे पनघट से
भरे घड़े-सा, और
उड़ेल देती जीवन के कृष्णपक्ष में
सफेद फूल-सा
उलझकर रात के जूड़े में
छटपटाता रहता है चाँद
टूटती रहती हैं उसकी पंखु़िड़याँ
घुलता जाता हैं
आकाशगंगाओं के अंतस् में उदासी का जल
गीली हो रही हैं पत्तियों की नोक
और घीरे-धीरे ....
साँझ पर गिर रहा है अँधेरा
तुम्हारे बिन
सबके होंठों पर बिखर रहा हूँ शब्दों की तरह
अर्थ
वसंती हवाओं के साथ फूलों के देश में,
उड़ रहे हैं तितलियों संग

समय के पेड़ से
उदासी के पतझड़ में बिखर गए
यादों के हरे पत्ते,
जिन पर सूरज की किरणों ने
लिखे थे खुशियों के गीत
घृणा भरे इस समय की आस्तीन में छिपे
साँपों के बीच
और कीचड़ में धँसे इस शहर में
जायज नहीं है प्रेम की कल्पना भी
तुम्हारे बिन
अब वे दरख़्त भी हो गए हैं ठूँठ
जिन्हें सींचा था रिश्तों के लहू से
तुम्हारे बिन
बहुत सूने और कठोर हो गये हैं
नदी के किनारे।