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कविता क्यों नहीं है प्रकाश / नवीन सागर

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आसमान की परछाई-सी
फैली धरती
पर
मैं आदमी की छाया हूं
भटकती
इस छाया का मैं कौन हूं
कितने बरस तक यहां क्‍योंकर!

न होने पर
टिका हुआ होना
क्‍या होना है!
यह कोई होना नहीं है
न होना भी नहीं है कुछ
मेरा आशय
इस परछाई के बाहर
क्‍या है!

रोशनी के अंधेरे सुराखों से
टपकता अंधकार
मेरा स्‍वर है
यह कोई गाना नहीं है
फैलती हुई गूंज है शून्‍य की.

अभी अकेला जागा हुआ
घर में
पागल सवालों की भीड़ में
धूल सा पड़ा हूं
कविता
क्‍यों नहीं है प्रकाश!

मेरी रातों के चीथड़ों से
बना है अंधकार
मेरी दस्‍तकों से
बना है दरवाजा!
मेरी मृत्‍यु से बना है मेरा जीवन
मेरे न होने से
मेरा होना बना है.
मैं अपनी परछाई में से
निकला हूं
अपने सपने में से
आया हूं सुबह-सुबह
संसार में!