भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कब से विलोकती तुमको / सुमित्रानंदन पंत

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:28, 10 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत |संग्रह= गुंजन / सुमित्रानंदन …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कब से विलोकती तुमको
ऊषा आ वातायन से?
सन्ध्या उदास फिर जाती
सूने-गृह के आँगन से!
लहरें अधीर सरसी में
तुमको तकतीं उठ-उठ कर,
सौरभ-समीर रह जाता
प्रेयसि! ठण्ढी साँसे भर!
हैं मुकुल मुँदे डालों पर,
कोकिल नीरव मधुबन में;
कितने प्राणों के गाने
ठहरे हैं तुमको मन में?
तुम आओगी, आशा में
अपलक हैं निशि के उडुगण!
आओगी, अभिलाषा से
चंचल, चिर-नव, जीवन-क्षण!

रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२