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विहग, विहग / सुमित्रानंदन पंत

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विहग, विहग,
फिर चहक उठे ये पुंज-पुंज,
कल-कूजित कर उर का निकुंज,
चिर सुभग, सुभग!
किस स्वर्ण-किरण की करुण-कोर
कर गई इन्हें सुख से विभोर?
किन नव स्वप्नों की सजग-भोर?

हँस उठे हृदय के ओर-छोर
जग-जग खग करते मधुर-रोर,
मैं रे प्रकाश में गया बोर!

चिर मुँदे मर्म के गुहा-द्वार,
किस स्वर्ग-रश्मि ने आर-पार
छू दिया हृदय का अन्धकार!

यह रे, किस छबि का मदिर-तीर?
मधु-मुखर प्राण का पिक अधीर
डालेगा क्या उर चीर-चीर!

अस्थिर है साँसों का समीर,
गुंजित भावों की मधुर-भीर,
झर झरता सुख से अश्रु-नीर!

बहती रोओं में मलय-वात,
स्पन्दित-उर, पुलकित पात-गात,
जीवन में रे यह स्वर्ण-प्रात!

नव रूप, गन्ध, रँग, मधु, मरन्द,
नव आशा, अभिलाषा अमन्द,
नव गीत-गुंज, नव भाव-छन्द,--

(ये)
विहग, विहग
जग उठे, जग उठे पुंज-पुंज,
कूजित-गुंजित कर उर-निकुंज,
चिर सुभग, सुभग!

रचनाकाल: जनवरी’ १९३२