भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पिता / गोविन्द माथुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सर्दियों की ठिठुरती सुबह में
मेरा पुराना कोट पहने
सिकुड़े हुए कही दूर से
दूध लेकर आते है पिता

दरवाज़े पर उकडू से बैठे
बीड़ी पीते हुए
मुझे आता देख
हड़बड़ी में
खड़े हो जाते है पिता

सारा दिन निरीहता से
चारों तरफ देखते
चारपाई बैठे खाँसते
मुझे देख कर चौंक उठते है पिता

मैं कभी भी
उनके पैर नहीं छूता
कभी हाल नहीं पूछता
जीता हूँ एक दूरी
महसूसता हूँ
उनका होना
सोचता हूँ
यह कब से हुआ पिता