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कोई और स्वर होगा कि अंतिम नहीं /लीलाधर मंडलोई

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दोआब है यह 'कुब्‍जा' और 'नरबदा' का, जहॉं हम पहुंचे हैं
कीच-कांदा में लिथड़े लेकिन डूबे उसमें इतना कि याद पुरखों की

विरल अनुभव कि एक नौ-दस साल का बच्‍चा
कोई तीस-बत्‍तीस वर्ष पूर्व अपनी मां के साथ भर उमंग
मिट्टी तोड़ता, भिगोता, खूंदता शाम की रोटी के लिए

स्‍वर मिलाता अक्‍का मां की पवित्र गुनगुनाहट में
जैसे कि इस घड़ी उस पार गा रहा है कोई एक अपना भूलता थकन
'तरीना को नारा रे, मोर हारिल सुआ'
एक बच्‍चे की उपस्थिति है वहां उसके स्‍वर अनुगूंज में

दोनों जैसे परछाई में घुल-मिल झिलमिल है लहरों पर
हालांकि कहीं रेडियो पर सुनी यह धुन एक जमाने की
शायद विविध भारती पर किसी सगामन का स्‍वर
किसी मशीन की कैद से मुक्‍त यह अब ऐसा जिससे
अलसाये खेत जाग उठें कि तोतों के अलावा
शिरकत उन कन्‍याओं की जो इसे गाएंगी कुंवार-कातिक में
खलिहान जो निष्‍कंप हैं लेकिन कोई नाद स्‍वर वहां भी

खालीपन मानो भरता सम पर आने के बाद
नया एक जोड़ा है नाव से गुजरता मुस्कियाता
चप्‍पुओं से लौटे वेगड़ के चिन्‍ह कहीं आस-पास
दोआब की देह पर उनके रेखांकन उभरते-डूबते
नर्मदा की शिला पर फोड़े गए नारियल पानी के चिन्‍ह ताजा
पांव पत्‍थरों की पीठ पर यात्रा के थके कि गीत से शीतल हुए
रात जो हर किसी के हिस्‍से में एक बिछौना है, ढूंढता हर कोई

लेकिन यहां बढ़ता डोंगियों का जमघट
दिन शुरू होता है मछुआरों का जाल उठाए
कुछ स्‍त्रि‍यां हैं चप्‍पुओं से खेलतीं अब
नदी में दूर-दूर तक निकलते काम पर
रात उनकी दिन हुआ रोटी को कि खलिहान की मजूरी से दूर अभी

लौटेंगे कल सुबह बिताए दिन अपना किसी चट्टान पर
और हम दिन से भरे थके-हारे अपनी रात के लिए
उस तरफ गांव बत्तियों में दिपदिपाता कि पुकारता कोई

जगह वहां खूब और लोग-बाग अब भी
शहर में होते कहीं तो ढूंढते ठौर-ठिकाना
रात यहां मिल ही जाता है कोई घर अपना और परिचित सदियों सा
किसी की चारपाई, किसी का चूल्‍हा या बना-बचा भात

होगी जैसे दोआब की सॉंझ कल
कहीं कोई और दोगाना, कोई और स्‍वर होगा कि अंतिम नहीं