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विहग के प्रति / सुमित्रानंदन पंत

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विजन-वन के ओ विहग-कुमार!
आज घर-घर रे तेरे गान;
मधुर-मुखरित हो उठा अपार
जीर्ण-जग का विषण्ण-उद्यान!
सहज चुन-चुन लघु तृण, खर, पात,
नीड़ रच-रच निशि-दिन सायास,
छा दिये तूने, शिल्पि-सुजात!
जगत की डाल-डाल में वास।
मुक्त-पंखों में उड़ दिन रात,
सहज स्पन्दित कर जग के प्राण,
शून्य-नभ में भर दी अज्ञात
मधुर-जीवन की मादक-तान।
सुप्त-जग में गा स्वप्निल-गान
स्वर्ण से भर दी प्रथम-प्रभात,
मंजु-गुंजित हो उठा अजान
फुल्ल जग-जीवन का जलजात।
श्रान्त, सोती जब सन्ध्या-वात,
विश्व-पादप निश्वल, निष्प्राण,--
जगाता तू पुलकित कर पात
जगत-जीवन का शतमुख-गान।
छोड़ निर्जन का निभृत निवास,
नीड़ में बँध जग के सानन्द,
भर दिए कलरव से दिशि-आस
गृहों में कुसुमित, मुदित, अमन्द!
रिक्त होते जब-जब तरु-वास
रूप धर तू नव नव तत्काल,
नित्य-नादित रखता सोल्लास
विश्व के अक्षय-वट की डाल।
मुग्ध-रोओं में मेरे, प्राण!
बना पुलकों के सुख का नीड़,
फूँकता तू प्राणों में गान
हृदय मेरा तेरा आक्रीड़।
दूर बन के ओ राजकुमार!
अखिल उर-उर में तेरे गान,
मधुर इन गीतों से, सुकुमार!
अमर मेरे जीवन औ’ प्राण।

रचनाकाल: अगस्त’ १९३०