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जग के उर्वर आँगन में / सुमित्रानंदन पंत

जग के उर्वर-आँगन में
बरसो ज्योतिर्मय जीवन!
बरसो लघु-लघु तृण, तरु पर
हे चिर-अव्यय, चिर-नूतन!

बरसो कुसुमों में मधु बन,
प्राणों में अमर प्रणय-धन;
स्मिति-स्वप्न अधर-पलकों में,
उर-अंगों में सुख-यौवन!

छू-छू जग के मृत रज-कण
कर दो तृण-तरु में चेतन,
मृन्मरण बाँध दो जग का,
दे प्राणों का आलिंगन!

बरसो सुख बन, सुखमा बन,
बरसो जग-जीवन के घन!
दिशि-दिशि में औ’ पल-पल में
बरसो संसृति के सावन!

रचनाकाल: जून’ १९३०