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अप्सरा / सुमित्रानंदन पंत

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निखिल-कल्पनामयि अयि अप्सरि!
अखिल विस्मयाकार!
अकथ, अलौकिक, अमर, अगोचर,
भावों की आधार!
गूढ़, निरर्थ असम्भव, अस्फुट
भेदों की शृंगार!
मोहिनि, कुहकिनि, छल-विभ्रममयि,
चित्र-विचित्र अपार!

शैशव की तुम परिचित सहचरि,
जग से चिर अनजान
नव-शिशु के संग छिप-छिप रहती
तुम, मा का अनुमान;
डाल अँगूठा शिशु के मुँह में
देती मधु-स्तन-दान,
छिपी थपक से उसे सुलाती,
गा-गा नीरव-गान।

तन्द्रा के छाया-पथ से आ
शिशु-उर में सविलास,
अधरों के अस्फुट मुकुलों में
रँगती स्वप्निल-हास;
दन्त-कथाओं से अबोध-शिशु
सुन विचित्र इतिहास
नव नयनो में नित्य तुम्हारा
रचते रूपाभास।

प्रथम रूप मदिरा से उन्मद
यौवन में उद्दाम
प्रेयसि के प्रत्यंग-अंग में
लिपटी तुम अभिराम;
युवती के उर में रहस्य बन
हरती मन प्रतियाम,
मृदुल पुलक-मुकुलों से लद कर
देह-लता छबि-धाम।

इन्द्रलोक में पुलक नृत्य तुम
करती लघु-पद-भार!
तड़ित-चकित चितवन से चंचल
कर सुर-सभा अपार,
नग्न-देह में नव-रँग सुर-धनु
छाया-पट सुकुमार,
खोंस नील-नभ की वेणी में
इन्दु कुन्द-द्युति स्फार।

स्वर्गंगा में जल-विहार जब
करती, बाहु-मृणाल!
पकड़ पैरते इन्दु-बिम्ब के
शत-शत रजत मराल;
उड़-उड़ नभ में शुभ्र-फेन कण
बन जाते उडु-बाल,
सजल देह-द्युति चल-लहरों में
बिम्बित सरसिज-माल।

रवि-छवि-चुम्बित चल-जलदों पर
तुम नभ में, उस पार,
लगा अंक से तड़ित-भीत शशि—
मृग-शिशु को सुकुमार,
छोड़ गगन में चंचल उडुगण,
चरण-चिन्ह लघु-भार,
नाग-दन्त-नत इन्द्रधनुष-पुल
करती तुम नित पार।

कभी स्वर्ग की थी तुम अप्सरि,
अब वसुधा की बाल,
जग के शैशव के विस्मय से
अपलक-पलक-प्रवाल!
बाल युवतियों की सरसी में
चुगा मनोज्ञ मराल,
सिखलाती मृदु रोम-हास तुम
चितवन-कला अराल।

तुम्हें खोजते छाया-बन में
अब भी कवि विख्यात,
जब जग-जग निशि-प्रहरी जुगुनू
सो जाते चिर-प्रात,
सिहर लहर, मर्मर कर तरुवर,
तपक तड़ित अज्ञात,
अब भी चुपके इंगित देते
गूँज मधुप, कवि-भ्रात।

गौर-श्याम तन, बैठ प्रभा-तम,
भगिनी-भ्रात सजात
बुनते मृदुल मसृण छायांचल
तुम्हें तन्वि! दिनरात;
स्वर्ण-सूत्र में रजत-हिलोरें
कंचु काढ़तीं प्रात,
सुरँग रेशमी पंख तितलियाँ
डुला सिरातीं गात।

तुहिन-बिन्दु में इन्दु-रश्मि सी
सोई तुम चुपचाप,
मुकुल-शयन में स्वप्न देखती
निज-निरुपम छबि आप;
चटुल-लहरियों से चल-चुम्बित
मलय-मृदुल पद-चाप,
जलजों में निद्रित मधुपों से
करती मौनालाप।

नील रेशमी तम का कोमल
खोल लोल कच-भार,
तार-तरल लहरा लहरांचल,
स्वप्न-विचक-तन-हार;
शशि-कर-सी लघु-पद, सरसी में
करती तुम अभिसार,
दुग्ध-फेन शारद-ज्योत्स्ना में
ज्योत्स्ना-सी सुकुमार।

मेंहदी-युत मृदु-करतल-छबि से
कुसुमित सुभग’ सिंगार,
गौर-देह-द्युति हिम-शिखरों पर
बरस रही साभार;
पद-लालिमा उषा, पुलकित-पर,
शशि-स्मित-घन सोभार,
उडु कम्पन मृदु-मृदु उर-स्पन्दन,
चपल-वीचि पद-चार।

शत भावों के विकच-दलों से
मण्डित, एक प्रभात
खिली प्रथम सौन्दर्य-पद्म-सी
तुम जग में नवजात;
मृंगों-से अगणित रवि, शशि, ग्रह,
गूँज उठे अज्ञात,
जगज्जलधि हिल्लोल-विलोड़ित,
गन्ध-अन्ध दिशि-वात।

जगती के अनिमिष पलकों पर
स्वर्णिम-स्वप्न समान,
उदित हुई थी तुम अनन्त
यौवन में चिर-अम्लान;
चंचल-अंचल में फहरा कर
भावी स्वर्ण-विहान,
स्मित आनन में नव-प्रकाश से
दीपित नव दिनमान।

सखि, मानस के स्वर्ग-वास में
चिर-सुख में आसीन,
अपनी ही सुखमा से अनुपम,
इच्छा में स्वाधीन,
प्रति युग में आती हो रंगिणि!
रच-रच रूप नवीन,
तुम सुर-नर-मुनि-इप्सित-अप्सरि!
त्रिभुवन भर में लीन।

अंग अंग अभिनव शोभा का
नव वसन्त सुकुमार,
भृकुटि-भंग नव नव इच्छा के
भृंगों का गुंजार,
शत-शत मधु-आकांक्षाओं से
स्पन्दित पृथु उर-भार,
नव आशा के मृदु मुकुलों से
चुम्बित लघु-पदचार।

निखिल-विश्व ने निज गौरव
महिमा, सुखमा कर दान,
निज अपलक उर के स्वप्नों से
प्रतिमा कर निर्माण,
पल-पल का विस्मय, दिशि-दिशि की
प्रतिभा कर परिधान,
तुम्हें कल्पना औ’ रहस्य में
छिपा दिया अनजान।

जग के सुख-दुख, पाप-ताप,
तृष्णा-ज्वाला से हीन,
जरा-जन्म-भय-मरण-शून्य,
यौवनमयि, नित्य-नवीन;
अतल-विश्व-शोभा-वारिधि में,
मज्जित जीवन-मीन,
तुम अदृश्य, अस्पृश्य अप्सरी,
निज सुख में तल्लीन।

रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२