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रात का मुहाना / लीलाधर मंडलोई
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अपनों से दूर चला आया किनकी खातिर
एक दिपता हुआ तारा भी नहीं दूर तलक
मेरा साया भी छूट गया कहीं रात हुई
जो कुछ आग है बाकी चुक न जाए कहीं
इतनी छायाएं हैं आक्रमण को आतुर
जिनके घर पहुंचके हुआ बेघर मैं
उनकी हंसी में शामिल थे न्यायविद्
मैं एक पूर्जा कबाड़ भर कीमत
करते हुए काम मैं बेकाम हुआ
खुद को खोने की अनहोनी के डर में डूबा
मैं जिधर खड़ा हूं अभी रात का मुहाना है.