भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वक्त का जादू / मुकेश मानस

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:30, 16 मई 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भोले-भाले मासूम बच्चे
खेलते-खेलते गायब हो जाएँ

अल्ल-सुबह घूमने निकले बुजुर्ग
लौटकर घर न आएँ

चहकती-महकती लड़कियाँ
ख़ौफ़ज़दा पुतलियों में बदल जाएँ

देखते-देखते ख़ुशबूदार फूल
धारदार शूल बन जाएँ

हमने पहले तो नहीं देखा
भई वाह!
कैसा जबरदस्त जादू है
जो यह वक़्त हमें दिखा रहा है।

रचनाकाल : जून 2000