भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सहमे सहमे आप हैं / तेजेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:29, 8 मार्च 2007 का अवतरण
रचनाकार: तेजेन्द्र शर्मा
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
मस्जिदें ख़ामोश हैं, मंदिर सभी चुपचाप हैं
कुछ डरे से वो भी हैं, और सहमें सहमें आप हैं
वक्त है त्यौहार का, गलियाँ मगर सुनसान हैं
धर्म और जाति के झगडे़ बन गये अब पाप हैं
रिश्तों की भी अहमियत अब ख़त्म सी होने लगी
भेस में अपनों के देखो पल रहे अब सांप हैं
मुंह के मीठे, पीठ मुड़ते भोंकते खंजर हैं जो
दाग़ हैं इक बदनुमा, इंसानियत पर, शाप हैं
राम हैं हैरान, ये क्या हो रहा संसार में
क्यों भला रावण का सब मिल, कर रहे अब जाप हैं