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अकेली दुपहर / रघुवीर सहाय

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उस दुपहर की बात याद है
शहर आंध्र का एक अजनबी
पैदल लम्बी-लम्बी सड़कें
वही गंदगी वही सजावट

पर कुछ नया नया लगता था
बचपन और परायापन भी
चलते चलते आँखें खोले
बेमतलब थकते जाना भी

सहसा ठहर गया परदेसी
उसे याद आए कुछ रुपए
जो थे उसके पास कि जिनसे
उसे भरोसा अपने पर था

उनसे आ सकती थी बोतल
छोटी सी सस्ती शराब की
वह अनजाने खड़ा हुआ था
शराबख़ाने के दरवाज़े

ज़ोर लगाकर अपने भीतर
उसने इस ख़तरे को टाला
उसने बोतल नहीं ख़रीदी
वह आगे चल दिया कहीं को