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बर्राहट / लीलाधर मंडलोई

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नहीं वह अब अपने ठियों पर
झिझक कोई कि फांस संशय भरी
हंसता था एक समय खुलकर
पुकारता था दोस्‍तों को नाम से
शरीक इतना रहा
भूलता गया अपना घर

बंद कपाटों में अब उसका होना
खटखटाते जिसे कम लोग
उबरने को सुनता रेडियो
जो एक चीख सा

कुत्‍तों का रूदन जागती चेतना में
फड़फड़ाते कबूतर आस-पास
परछाइयों का हंसता हुजूम
बर्राता स्‍वप्‍न में-'दीखता नहीं कोई'
एक अदद कुत्‍ता
दो बच्‍चे
कुछेक चिडियां और
पत्‍नी है शायद कंधे पर सिर टिकाए