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ग़ैरहाज़िर दोस्तों की तरफ़ / लीलाधर मंडलोई

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मैं हूं और खड़ा धंसकती जमीन पर
गनीमत कि अकेला नहीं
लोग हैं जिनके पांवों की बिवाइयां
मेरी आत्‍मा सरीखी हैं
और मैं उनमें बैठकर तमाखू खा सकता हूं

यहां प्रसन्‍न अखबार लोक का झूठा शोर नहीं
जिनके चेहरे हैं वक्‍त की गर्दिश में
पढ़ सकते हैं सफेद और काला

यहां एक भूकंप के बाद का अंधेरा है
एक जल चुके मकान की उड़ती राख
एक अभिन्‍न की मृत्‍यु में चुप घर
आहटों से घबराया बसंत
घड़ों के अंगों का दुख
टूटे खिलौनों का मिट्टी कबाड़

और मेरी आत्‍मा में बजता था जो कविता का सितार
उसके तार टूटके मस्तिष्‍क में चिपक गए हैं बेतरतीब
भय के शब्‍दों की गठरी में उलझा
दौड़ता हूं गैरहाजिर दोस्‍तों की तरफ
अंधेरा है सचमुच साबुत
सारे आइने इसमें डूबे हुए
अपने चेहरे से इतना महरूम
अपने शब्‍दों से इतना टूटा हुआ

मैं कि कोई खंडित शिल्‍प
न्‍याय की अंधी सुरंग में मूर्ति गढ़ता हूं