बहुत कुछ अनकरा करने को / लीलाधर मंडलोई
(फजल ताबिश के लिए)
बहुत कुछ अनकहा कहने को है
बहुत सा अनकरा करने को बाकी है
चलो उठ्ठो करो आवारगी कि घूम फिर आओ
कहीं पर कूं-कूं करते, ठंड खाते किसी कुत्ते के पास
रख दो जरा सी आग कि वो सो सके, वो रंज में है
चलो उठ्ठो चलो उस जाड़ ठीहे पर
वो जो बैठा है फजल का चाहने वाला
मिलें उससे तसल्ली दें कि वह कुछ तो कहे
बस मुस्कुरा दे
और उस कबाबवाले की गुमठी की डगर
बचा रखता रहा जो मर्द शायर का हिस्सा
उसके न पहुंचने पर
कि उस दुकान तक निकलो जिसके पान से
रोशन रहे लब बाद मरने के
चमकते इस तरह गोया कि मानो ख्वाब में
हाजिर हुआ पान ले दम तोड़ने से घड़ी भर पहले
हो लें उस बैठकखाने में कि जिधर फजल का बटुआ
तकता राह और ढूंढता उंगलियां उनकी
चलो उस बारातघर भी
जहां उसने दोस्तों-दुश्मनों के बीच
जमाये धौल-धप्पे पीठ पर सबकी सफर पर कूच से पहले
पहुंचो उन सब घरों में
जहां पर याद में उसकी सब गमजदा हैं
मिले उनसे उन्हें समझाएं कि वो मर नहीं सकता
निकला है वो यकीनन
किसी और काम की जिद में कि जो बेहद जरूरी था
जो हमसे हो नहीं सकता
वो इस तरह छोड़कर हमको अधर में जा नहीं सकता
बहुत कुछ अनकहा कहने को है, वो आएगा
उठ्ठो आवारगी को घर से निकलो, घूम फिर आओ
करो छूटे हुए वो सब अधूरे काम
जो उसने सोच रक्खे हैं
आएगा तो मांगेगा वो सबसे सब हिसाब, नाराज होगा