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निर्वेद / गुलाब खंडेलवाल
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आओ कुछ बात करें घर-परिवार की
अपने-पराये की, नगद-उधार की
न तो कुछ बढ़ायें ही और न ही छोड़ें
कुछ भी न जोड़ें और कुछ भी न तोड़ें
सबके ही बीच रहें, सबसे मुंह मोड़ें
चर्चा भर लाभ-हानि, जीत और हार की
दुनिया की आबादी बढ़ती है, बढ़े
चाँद पर मनुष्य अगर चढ़ता है, चढ़े
कविता को छोड़ गद्य पढ़ता है, पढ़े
नियति यह हमारी है, चिंता बेकार की
लोग आत्महत्या पर उतारू हैं, मरे
हम केवल बातें कर सकते हैं, करें
होना है जो होगा, भागें या डरें
सब कुछ कह देगी एक पंक्ति अखबार की
यह तो कहो मरने के बाद कहाँ जायें!
इतना कुछ लेकर क्या शून्य में समायें!
सोयें क़यामत तक, उठकर भाग आयें!
कोई खबर मिलती नहीं उस पार की
आओ कुछ बात करें घर-परिवार की
अपने-पराये की, नगद-उधार की