भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जगत छलना की उन्हें न चाह / सुमित्रानंदन पंत
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:41, 27 मई 2010 का अवतरण ("जगत छलना की उन्हें न चाह / सुमित्रानंदन पंत" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
जगत छलना की उन्हें न चाह,
धीर जो नर, धीमान्!
सुरा का बहता रहे प्रवाह,
डूब जाएँ तन प्राण!
सुराही से हो सुरा प्रपात,
दर्द से दिल बेताब!
मूर्ख वे, खाते ग़म दिन रात,
उमर पीते न शराब!