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पंखा / निर्मला गर्ग

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खीर-पूड़ी नहीं बनाई इस बार पितर पक्ष में
न पंडित जिमाए
न दी दान-दक्षिणा
एक पंखा ख़रीदा छत से लटकाने वाला
दे आई दर्जी मज़ीद अहमद को

इमारत के सामने ख़ाली प्लाट में झोपड़ी डालकर
रहता है मज़ीद
कलई उखड़े चंद बासन
और एक अदद सिलाई मशीन के साथ

दुबला-पतला युवक है भागलपुर से आया
ग़रीब है पर हाथ में हुनर है
उमस में पसीजते उसे देखा तो पूछा
'एक पंखा क्यों नहीं खरीदते ?
काम तो तुम्हारे पास बहुत आता है'

'सो तो है पर महीन काम है न तुरपई-उधड़ी का
इतना कहाँ कर पाता हूँ '
कितना रुपया होने से तुम पंखा ले पाओगे
मैंने पूछा

'सौ रुपया रोज़ हो तो ठीक' फिर ज़रा अटका
'अस्सी होने पर भी बच सकता है
पर साठ से ज़्यादा हो नहीं पाता
बीमार भी तो पड़ता हूँ बीच-बीच में'

देखा है उसे मैंने झिलंगी खाट में
बेसुध पड़े हुए
तभी से सोचती थी उपहार में दूँ एक पंखा
बजट का हिसाब लगाया छह-सात सौ से कम
क्या आएगा
तब क्या हो सकता है ?

उपाय कोंधा :
आशिवन मास इस बार ब्राह्मण विहीन रखा जाए
पुरखे नाख़ुश नहीं होंगे
हवा लगेगी उन्हें भी मजीद जब चलाएगा पंखा

                     
 रचनाकाल : 2003