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मेरी आत्मा जो कि तुम्हारी / सुमित्रानंदन पंत

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मेरी आत्मा जो कि तुम्हारी
प्रीति सुरा की पीती धार,
भटक रही किस रोष दोष वश
वह इस जग में बारंबार!
पहले तुमने कभी न ऐसा
नाथ, किया निर्मम व्यवहार,
भोग रही वह आज दंड क्यों,
वहन कर रही जीवन भार!