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बच्चों के सपनों में / लीलाधर मंडलोई

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(विष्णु चिंचालकर के प्रति)

आसमान को एक मैदान में तब्दील कर
बच्चे खेलते हैं हरी कच्च गोलियाँ और
एक बूढ़ा एकदम हरा हो जाता है

वह निकलता है अरण्य से और शाम का सूरज
बच्चों के माथे पर लिखता है ‘खेल’

इवा घूमती है उसके चारों तरफ
बच्चों के होंठों से फूटते हैं झरने और
तब्दील हो जाते हैं संगीत खिलौनों में

बच्चों के सपने में मजे-मजे दौड़ते हैं
हिरन, भालू, बंदर, शेर और उड़ान भरती हैं चिड़ियां
उनकी सांसों में महकते हैं जंगल के अनछुए फूल
और घूमते हैं एकदम सामने चीते और भेड़िये

बच्चे बेखौफ हैं सजाते मेज पर पेड़-पौधे, पशु-पक्षी
वे भूगोल और इतिहास से परे सिर्फ बच्चे हैं अभी
समाते अपने भीतर पूरा का पूरा अरण्य बेधड़क