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निर्वेद / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

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लेखक: जयशंकर प्रसाद

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वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध,

मलिन, कुछ मौन बना,

जिसके ऊपर विगत कर्म का

विष-विषाद-आवरण तना।


उल्का धारी प्रहरी से ग्रह-

तारा नभ में टहल रहे,

वसुधा पर यह होता क्या है

अणु-अणु क्यों है मचल रहे?


जीवन में जागरण सत्य है

या सुषुप्ति ही सीमा है,

आती है रह रह पुकार-सी

'यह भव-रजनी भीमा है।'


निशिचारी भीषण विचार के

पंख भर रहे सर्राटे,

सरस्वती थी चली जा रही

खींच रही-सी सन्नाटे।


अभी घायलों की सिसकी में

जाग रही थी मर्म-व्यथा,

पुर-लक्ष्मी खगरव के मिस

कुछ कह उठती थी करुण-कथा।


कुछ प्रकाश धूमिल-सा उसके

दीपों से था निकल रहा,

पवन चल रहा था रुक-रुक कर

खिन्न, भरा अवसाद रहा।


भयमय मौन निरीक्षक-सा था

सजग सतत चुपचाप खडा,

अंधकार का नील आवरण

दृश्य-जगत से रहा बडा।


मंडप के सोपान पडे थे सूने,

कोई अन्य नहीं,

स्वयं इडा उस पर बैठी थी

अग्नि-शिखा सी धधक रही।


शून्य राज-चिह्नों से मंदिर

बस समाधि-सा रहा खडा,

क्योंकि वही घायल शरीर

वह मनु का था रहा पडा।


इडा ग्लानि से भरी हुई

बस सोच रही बीती बातें,

घृणा और ममता में ऐसी

बीत चुकीं कितनी रातें।



'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''