भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुज़र गए कई मौसम कई रुतें बदलीं / फ़राज़

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:57, 31 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अहमद फ़राज़ }} {{KKCatNazm}} {{KKVID|v=1P05lERBM7k}} <poem> गुज़र गए कई मौसम …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें

गुज़र गए कई मौसम कई रुतें बदलीं
उदास तुम भी हो यारों उदास हम भी हैं

फक्त तुमको ही नहीं रंज-ए-चाक दमानी
जो सच कहें तो दरीदा लिबास हम भी हैं

तुम्हारे बाम की शम्में भी तब्नक नहीं
मेरे फलक के सितारे भी ज़र्द ज़र्द से हैं

तुम्हें तुम्हारे आइना खाने की ज़न्गालूदा
मेरे सुराही और सागर गर्द गर्द से हैं

न तुमको अपने खादों खाल ही नज़र आयें
न मैं यह देख सकूं जाम में भरा क्या है

बशारतों पे वोह जले पड़े की दोनों को
समझ में कुछ नहीं आता की माज़रा क्या है

न सर में व्हो गरूर-ए-कसीदा कामती है
न कुम्रियों की उदासी में कुछ कमी आई

न खिल सके किसी जानिब मोहब्बतों के गुलाब
न शाख-ए-अमन लिए फाख्ता कोई आई

आलम तो यह है की दोनों के मर्ज़ारों से
हवा-ए-फितना-ओ-बू-ए-फसाद आती है

सितम तो यह है की दोनों को वहम है की बहार
उदूक-ए-खून में नहाने के बाद आती है

सो यह माल हुआ की इस दरिंदगी का की
अब तुम्हरे हाथ सलामत रहे न हाथ मेरे

करें तो किस से करें अपनी लग्ज़िसों का गिला
न कोई साथ तुम्हरे न कोई साथ मेरे

तुम्हें भी जिद है की मास्क-ए-सितम रहे जारी
हमें भी नाज़ की जारो जाफा के आदि हैं

तुम्हें भी जोम महाभारत लड़ी तुमने
हमें भी फख्र की हम कर्बला के आदि हैं

तुम्हरे हमारे शहरों की मजबूर बनवा मखलूक
दबी हुई हैं दुखों के हजार्ड हेरों में

अब इनकी तीर-ए-नाशी भी चिराग चाहती है
जो लोग उन्नीस सदी तक रहे अंधेरों में

चिराग जिन से मोहब्बत को रौशनी फैले
चिराग जिन से दिए बेशुमार रोशन हों

तुम्हारे देश में आया हूँ दोस्तों
अब के न साज़-ओ-नगमों की महफ़िल न शायरी के लिए

अगर तुम्हरी ही आन का है सवाल
तो चलो मैं हाथ बढ़ता हूँ दोस्ती के लिए