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स्वर्णधूलि (कविता) / सुमित्रानंदन पंत

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स्वर्ण बालुका किसने बरसा दी रे जगती के मरुथल मे,
सिकता पर स्वर्णांकित कर स्वर्गिक आभा जीवन मृग जल में!

स्वर्ण रेणु मिल गई न जाने कब धरती की मर्त्य धूलि से,
चित्रित कर, भर दी रज में नव जीवन ज्वाला अमर तूलि से!

अंधकार की गुहा दिशाओं में हँस उठी ज्योति से विस्तृत,
रजत सरित सा काल बह चला फेनिल स्वर्ण क्षणों से गुंफित!

खंडित सब हो उठा अखंडित, बने अपरिचित ज्यों चिर परिचित,
नाम रूप के भेद भर गए स्वर्ण चेतना से आलिंगित!

चक्षु वाक् मन श्रवण बन गए सूर्य अग्नि शशि दिशा परस्पर,
रूप गंध रस शब्द स्पर्श की झंकारों से पुलकित अंतर!

दैवी वीणा पुनः मानुषी वीणा बन नव स्वर में झंकृत,
आत्मा फिर से नव्य युग पुरुष को निज तप से करती सर्जित!

बीज बनें नव ज्योति वृत्तियों के जन मन में स्वर्ण धूलि कण,
पोषण करे प्ररोहों का नव अंध धरा रज का संघर्षण!

चीर आवरण भू के तम का स्वर्ण शस्य हों रश्मि अंकुरित,
मानस के स्वर्णिम पराग से धरणी के देशांतर गर्भित!