भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारा ख़त / प्रज्ञा पाण्डेय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:39, 2 जून 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त
कई टुकडे बन गए इबादत के

पढ़ते हुए
तुम्हारा ख़त
याद आई जाति बिरादरी
याद आया चूल्हा
छिपा छूत के डर से !

याद आई बाबा की
पीली जनेऊ
खींचती रेखा कलेजे में !

तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
याद आई
सिवान की थान
जहाँ जलता
पहला दिया हमारे घर से !

याद आई झोपडी
तुम्हारी
जहाँ छीलते थे पिता
तुम्हारे
बांस
और बनाते थे खाली टोकरी !

याद
आया हमारा
भरा खेत खलिहान !
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
घनी हों गई छांव नीम की

और
याद आई
गाँव की बहती नदी
जिसमें डुबाये बैठते
हम
अपने अपने पाँव !
और बहता
एक रंग पानी का!

फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त
कई टुकडे बन गए
इबादत के
और इबादत के कई टुकडे हुए !