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ऑफ़िस-तंत्र-8 / कुमार अनुपम

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यह एक ऐसा तन्त्र है
जहाँ हर शख्स परतन्त्र है

षड्यन्त्र हैं और चतुर चालबाजि़याँ हैं
और तनाव और रणनीति है
चापलूसियाँ और वार्ताएँ और लापरवाहियाँ
और दुरभिसन्धियाँ
और समझौते और लालच
और लिप्साएँ और घूस और पलायन
और विडम्बनाएँ और विराग और युद्ध हैं

और कई बार तो 'इलू इलू भी
और इस हद तक कि शादियों में उसकी परिणति

सच्चाइयाँ भी हैं
लेकिन उतनी ही
कि झूठ के साम्राज्य पर
जितनी से न आये तनिक भी खरोंच
चलता रहे कारोबार सकुशल
सब खुश खुश-सा दिखते रहें इतनी अनुकम्पा
इतने ही अनुपात में व्यवहार

कुल मिलाकर यह कि जहाँ गुज़ारता है वह
अपना बहुत सारा समय और जीवन,
यह एक कू्रर सच्चाई है, कि दरअसल
उसका अपना वहाँ कोई नहीं है

मसलन यह
कि कोई किसी का ताबेदार है तो कोई किसी का मनसबदार
कोई किसी का चेला है तो कोई किसी का पिट्ठू
कोई किसी का कारकुन तो कोई किसी का तरफदार
मतलब कोई इनका आदमी है तो कोई उनका आदमी है
कोई काम का आदमी नहीं है

और जनाब, एक जीता जागता ताज्जुब है,
कि यह तन्त्र
फिर भी चलता ही चला जा रहा है तमाम घुनों के बावजूद
गोया कि हमारा ही देश हो।